जी हां चौंकिए मत , दरअसल पिछले दो दिनों की कुछ पोस्टों ने , मेरे उन दो प्रिय ब्लॉग शिक्षार्थियों , एक है सुश्री रिया नागपाल और दूसरे हैं मित्र ब्लॉगर और इस बार ही मिले भाई केवल राम , ये दोनों वो लोग हैं जिन्होंने हिंदी ब्लॉगिंग को शोध का विषय बनाया है, उन्हें थोडा सा क्षुब्ध सा कर डाला होगा सो उन्हीं से मुखातिब हूं । अब मुझे समझ नहीं आ रहा कि इसे ब्लॉगजगत की खुशकिस्मती कहूं कि पिछले दस दिनों में ही हिंदी ब्लॉगिंग पर एक अलग दृष्टिकोण बनाने और स्थापित करने वाले दो लोग अचानक ही रूबरू हुए , या फ़िर ये ब्लॉगजगत की बदकिस्मती कहूं कि दोनों ने ही पिछले दस दिनों में जो पोस्टें , और बहस देखी हैं तो उन्हें कैसा महसूस हुआ होगा । बनिस्पति इसके कि , हिंदी ब्लॉगिंग में इससे भी अधिक , निंदनीय , शर्मनाक , विवादास्पद हो चुका है इनका भी होना अब अनछुआ तो नहीं ही रहेगा ,और जिस तरह की पोस्टें और प्रतिक्रियाएं मैंने पढी देखी तो जरूरी हो गया कि ..एक ब्लॉगर मन को अब छोड दिया जाए कि ..चल कर कुछ ....बेबाक बकबक ॥
इन पोस्टों से , इनमें आई टिप्पणियों से , और उनमें से निकले उदगारों ने निश्चित रूप से ब्लॉग्गिंग और ब्लॉगर्स को सीखने के लिए बहुत कुछ दिया होगा , जिसमें से पहला तो वही है जो इस दुनिया के परे भी चलता है ...यानि इतिहास अपने आपको दोहराता है ..और दोहराता ही जाता है ....यानि आप जो कुछ करेंगे , कहेंगे , सुनेंगे ..वो घूम फ़िर कर आपके सामने ठीक उसी रूप में खडा हो जाता है ..ज्यादा से ज्यादा अप उसे थोडे दिनों के टाल सकते हैं ।एक दूसरी महत्वपूर्ण बात ये कि हिंदी ब्लॉगिंग में जब भी किसी बैठक / सम्मेलन और संगोष्ठियों का आयोजन किया जाएगा तो यकीनन , उसकी सफ़लता उसकी सार्थकता से ज्यादा रुचि उससे संबंधित कोई विवाद , कोई बवाल आदि पर ही बनेगी । वाह वाह इसे क्या कहा जाए विडंबना मात्र या कि हिंदी ब्लॉगिंग की मासूमियत कि इतना भी परिपक्व नहीं कि अपनी एक किसी छवि को ही बचा सके । एक और बात ये कि , चाहे हिंदी ब्लॉगर्स लाख प्रयास करें मगर अक्सर क्रिकेट मैच के उस एकमात्र कैच को छोड देने की गलती जरूर करते हैं जो बात में हार का सबब बन जाता है ।
मैं अपने दूसरे ब्लॉग पर रविवार के रोहतक ब्लॉगर बैठक की रिपोर्ट करीने से सजाने में लगा था , हालांकि सबका मानना है कि इस तरह के ब्लॉग बैठकों में कुछ नहीं होता किंतु यदि किसी ब्लॉगर से उसके मुंह से ये सुनना कंप्यूटर के संचालन में भूलवश हुई एक गलती ने उन्हें नौकरी खोने पर मजबूर किया और उसके बाद उन्होंने न सिर्फ़ कंप्यूटर सीखा बल्कि एक दिन ब्लॉगिंग में भी आ गए , तो मेरे लिए तो एक ब्लॉगर के मुंह से सुना हुआ उनका ऐसा अनुभव भी मेरे लिए वहां मेरी उपस्थिति को सार्थक कर गया , । तो जैसा कि मैं कह रहा था कि मैं रिपोर्ट सजाने में लगा हुआ था , बावजूद इसके कि कुछ दिनों से लगातार ब्लॉगजगत से जुडे साथियों के लिए मुश्किल समय गुजर रहे होने के कारण मन मेरा बोझिल था , मैं चाह रहा था कि जल्दी से जल्दी सब तक सारा कुछ पहुंचा दूं , मगर अचानक देखा तो दो पोस्टों पर नज़र गई । दूसरी पोस्ट पहली पोस्ट में इस्तेमाल की गई भाषा , एक विशेष शब्द के प्रयोग और लेखक की मंशा और यहां तक कि उस पर पाठकों द्वारा दी गई टिप्पणियों पर सख्त एतराज़ जताते हुए लिखी गई थी । अब बात इसके आगे की ....
पहली बात तो मैं ये स्पष्ट कर दूं , कि,हालांकि इस बैठक का आयोजक मैं नहीं था इसलिए ये स्पष्टीकरण करने देने का हक सिर्फ़ राज भाटिया जी का ही है ,मगर चूंकि एक ब्लॉगर की हैसियत से मैं भी वहां उपस्थित था इसलिए कम से कम अपनी स्थिति स्पष्ट कर दूं इतना हक तो है ही मुझे । तो सबसे पहली बात उनके लिए जो इस पोस्ट को ब्लॉगर्स बैठक से जोड कर देख रहे हैं या जोडने की कोशिश कर रहे हैं जैसा कि उस पोस्ट की शीर्षक से ही स्पष्ट था ...ब्लॉगर बैठक के बाद .......जी हां ध्यान दीजीए ..के बाद । यानि तब जबकि बैठक खत्म हो चुकी थी और ये बैठक तभी खत्म हो चुकी थी जब हम सब आपसी विमर्श और बातचीत के बाद उठ कर तिलियार बाग के भ्रमण पर निकल गए थे और फ़िर तो पोस्ट में जिस एक बात या रात सुबह का जिक्र था उस वक्त तक तो इतिहास ने तारीख भी बदल ली थी ...। जो लोग इसे ब्लॉग बैठकों में होया किया साबित कर रहे हैं वे जरा फ़िर ये भी बता देते कि ब्लॉग बैठक के बाद भाई समान ब्लॉगर डॉ टी एस दराल जी के यहां उनके पितृशोक पर हमारा जाना भी किस साजिश के तहत किया गया है ...हद है सोचने और कहने वालों की । तो खैर इससे निषकर्ष ये निकलता है ब्लॉगर बैठक के आयोजन करने वाले तमाम उन विचारों को अपना गला ये सोच कर घोंट लेना चाहिए कि यहां दूसरे तो दूसरे उन मित्रों ने भी इसे खाने पिलाने की हैसियत करने वाले किसी भी शख्स की बपौती करार दिया जिन्होंने तो सरकारी खजाने से ही ऐसी या शायद इससे भी उच्च कोटि की मेहमाननवाजी का आनंद हिंदी ब्लॉगर होने की वजह से ही उठाया था , काश कि तब भी सोचा होता कि , बिल तो वहां भी दिया ही गया होगा ...एक की जेब से न सही .....पूरी जनता की जेब से ही सही । अब देखना तो ये है कि ऐसी घटनाएं मेरे जैसे उन और कितने सिरफ़िरे ब्लॉगर को कितने हद तक तोड पाती है कि कभी तो कुछ ऐसा होगा कि ..हम सोच बैठेंकि ..हां ये दुनिया आभासी ही रहे तो ठीक है ...
मैं इस संदर्भ में एक उस बात का जिक्र करना चाहता हूं जो कि संयोग से ही इस बैठक में भाग लेने जाते समय हमारे बीच हुई थी । मुझे पता नहीं कि मैंने किस संदर्भ में ये बात कही थी मगर मैंने कहा था कि , ये बहुत ही जरूरी है कि पोस्ट को जिस भावना और मंतव्य से लिखा गया है उसे पाठक उसी मंतव्य से समझे भी , ये हो सकता है शत प्रतिशत वैसा हो पाना संभव न हो मगर तालमेल तो होना ही चाहिए , अन्यथा बहुत बार पोस्ट में कही गई और उससे समझी गई बातों में गजब का विरोधाभास हो जाता है । एक दूसरी जरूरी बात ये कि कभी कभी सिर्फ़ एक टिप्पणी पूरी पोस्ट की दिशा मोड देती है या कहिए कि भटका देती है उसे उसके उद्देश्य से । अब इसी संदर्भ में पहली पोस्ट आ घेरे में आ गई । हालांकि कुछ भी लिखने पढने सुनने से पहले ये बात ध्यान में रखनी ही होगी कि , क्या सिर्फ़ एक पोस्ट , एक कमेंट , के आधार पर किसी ब्लॉगर की छवि उसके विचार उसके उद्देशय को तय कर देना उचित है , हालांकि मैं किसी की तरफ़ से कोई स्पष्टीकरण नहीं दे रहा क्योंकि समय के अनुकूल प्रतिकूल लिखने पढने की स्वाभाविक जिम्मेदारी के एहसास की अपेक्षा तो यहां हर किसी से ही होती है । तो फ़िर क्या अक्सर उनकी पोस्टों में उनकी टिप्पणियों में उनके विचार , उनका मंतव्य वही होता है जो कि उस पोस्ट के आधार पर बनाया दिखाया समझाया जा रहा है । हां भूल तो हुई है , और इसके जस्टीफ़िकेशन की कोई कोशिश करने का प्रयास भी किए जाने की जरूरत नहीं है क्योंकि जब ये अंदेशा हो गया था कि पोस्ट को एक गलत दिशा दी जा रही है तो फ़िर उन कारकों (टिप्पणियों) को सिरे से ही मिटा देना चाहिए था और हो सकता तो पोस्ट भी । और उस पोस्ट से बेहतर विकल्प तलाशाना कोई कठिन कार्य नहीं था कम से कम उनके लिए तो जरूर ही ।
अब बात दूसरे पोस्ट की , ये तो बिल्कुल स्वाभाविक ही था कि जिन्होंने महिला अधिकारों पर किसी भी तरह से कभी भी किसी को नहीं बख्शा तो फ़िर कैसे ये मान लिया गया कि इस पोस्ट को वे यूं ही जाने देंगी । हालांकि मैं इस समय ये बात कतई नहीं कहना चाहता था , मगर इतना तो सबको यहां स्पष्ट दिख जाता है कि अपने एक विशेष बागी तेवरों और विचारों के कारण ही जाने अनजाने वे अन्य सभी ब्लॉगर्स से वैचारिक उलझाव में रही जरूर हैं । और ऐसा करते हुए खुद उन्होंने भी कई बार शायद उन मर्यादाओं को पार किया हो जिन्हें अक्सर नैतिकता के पैमाने पर रख कर देखा जाता है , मगर हर बार अपनी लडाई पूरी दृढता से लडी है । मगर लडी ही हैं , कभी कोई मुद्दा या बहस उन्होंने इसके विकल्प से नहीं हासिल किया ..यही उनका मुद्दा है । आखिर क्यों कभी कोई दूसरा ऐसा नहीं दिखता लिखता जो कि अन्य सभी ब्लॉगर्स के समान रूप से निशाने पर आ जाता हो । और तभी तो कहा गया है न कि इतिहास खुद को ही दोहराता है ...मेरे ख्याल से अब ये बात भी गौर करने लायक है कि आखिर हर बार वही क्यों ...और यदि मिल जाए तो फ़िर ...उत्तर तो अगला प्रश्न होना चाहिए कि .....तो फ़िर हर बार यही क्यों (पोस्ट ).....।
मुझे लगता है कि हमें एक दूसरे की इज्जत करना अभी सीखना होगा और यदि ऐसा हम नहीं कर पा रहे हैं तो फ़िर ये बहुत ही जरूरी हो जाता है कि हम आपस में आभासी रिश्ता ही निभाएं ताकि कम से कम ये अपेक्षा और अफ़सोस भी न रहे कि जिनके लिए ऐसा सोचा वो तो वैसे निकले या फ़िर कि ओह इनके लिए क्यों ऐसा सोचा ये तो वैसे न निकले । अब इन सब पिछली कुछ घटनाओं से सीखते हुए मुझे लगता है कि दो निर्णय लेना श्रेयस्कर होगा , पहला ये कि अब तक बनने हुए रिश्तों को ही जबरदस्ती ही सही आभासी जामा पहना दिया जाए और दूसरा ये कि भविष्य की तमाम ऐसी बैठकों , विमर्शों , का आयोजन करने वाले सभी मित्रों को चुन चुन कर ये लिंक्स भेजा करूंगा । फ़िलहाल तो इतना ही ..तो रिया और केवल जी से यही आग्रह है कि ..जब ब्लॉगिंग का इतिहास लिखने का प्रयास करें तो इन मुद्दों पोस्टों पर कोई दृष्टिकोण बनाने से पहले सब कुछ अच्छी तरह से खंगाल लें ।
एक आखिरी बात ये कि मैं इस पोस्ट की हालत देखने के बाद ही तय करूंगा कि ये पोस्ट रहनी चाहिए या नहीं ..क्योंकि कूडा करकट बन गई तो रखने का क्या फ़ायदा .....
झा जी, मैं तो ललित जी से क्षमायापन कर चुका हूं कि एक टिप्पणी के कारण उन्हें दिक्कत हुई और साथ ही में रचना जी से भी.. यह भी सही है कि मुझे लग रहा था कि नाम के कारण कोई बवाल न हो जाये और वही हुआ भी.. आपने मेरी मांग पर कोई ध्यान नहीं दिया, मैंने उस बच्चे का परिचय चाहा था जो आपके फोटो में था. दर-असल मेरा बच्चा भी बिल्कुल ऐसा ही लगता है इसलिये...
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जवाब देंहटाएंअजय जी, पहली बात तो यह कि, इस पोस्ट में आपने अपनी बातें बड़े गड्ड-मड्ड तरीके से रखी हैं,
कुछ समझा और बहुत कुछ नहीं ही समझ पाया । सो टिप्पणी लँबित है ।
दूसरी बात तो यह कि मैं ऎसे सम्मेलनों के पक्ष में कभी न रहा ।
अनौपचारिक मेल मिलाप तो हम सब की सामाजिक ज़रूरत है, पर इसे प्रचारित और मँचीकृत करना,
नित नये ध्रुवीकरण का कारण बन जाता है.. इसके वज़हों में वँचित रह जाने की अप्रियता के चलते उपजा असँतोष भी एक है । अब देखिये वहाँ ओल्ड-माँक साहब :) पसरे पड़े मुझे चिढ़ा रहे हैं :) कि नहीं ? हम पहले से ही क्या कम बँटें हुये हैं ? इन छवियों को यदि पोस्ट न किया जाता, तो इस सम्मेलन या ब्लॉगिंग का उखड़ जाता ? हो सकता है कि, मुझे सँकुचित दिमागों में गिन लिया जाये, पण कोई वाँदा नेंईं !
डॉ. साहब शुक्रिया ये बताने के लिए कि बातें गड्ड्मड्ड हैं तो कहना सार्थक रहा कि ..ब्लॉग बकबक है ..अब बकबक में कैसी व्यवस्थिता ...
जवाब देंहटाएंप्रचारित करना या मंचीकृत करना ..ये नई बात रही मेरे लिए ..क्योंकि ये तो मेरे लिए कुछ कुछ यात्रा वृत्तांत की तरह से रहता था जैसे एक दिन का सफ़र ..चलिए आगे से ध्यान रखूंगा कि कम से कम मेरी तरफ़ से कोई प्रचार न होने पाए ऐसी बैठकों का
नए ध्रुवीकरण ...हा हा हा यानि कि पुराने तो थे ही ..
और हां ओल्ड मॉंक वहां पसरा था में ..यदि आपका आशय वहां से और स्पष्ट हो पाता तो मुझे भी स्पष्टीकरण देने में आसानी होती ..हां बंधुंओं को ओल्ड मौंक की छवि के साथ खुद को दिखाने के लिए इतनी बेताबी क्योंकर रही ..ये तो मेरे लिए भी उत्सुकता का विषय है ..
और हां ...गिनने वालों ने यदि गिन लिया तो फ़िर उनकी संकुचितता भी प्रमाणित हो ही जाएगी ..आपने तो खूब फ़ंसाया उन्हें
भारतीय नागरिक जी ,
जवाब देंहटाएंउस बच्चे के विषय में आपको सिर्फ़ अंतर सोहिल ही बता सकते हैं क्योंकि बच्चों को मैंने उन्हीं के साथ देखा था । अब इस टिप्पणी से यहीं स्पष्ट कर दूं कि अब दूसरे ब्लॉग पर रोहतक बैठक की किसी अगली रिपोर्ट की प्रस्तुति से मुझे मुक्ति मिली ..
बोया पेड़ बाबुल का तो आम कहाँ से पायें ?
जवाब देंहटाएंक्या कहें ...चलो अब तो भारत आकार ही बात करते हैं ...
जवाब देंहटाएंअजय जी हमें तो पूरी रामायण ही समझ से परे लग रही है। पता नहीं हमें क्यों घसीटा जा रहा है? ब्लागिंग पर पोस्ट थी हमने भी उसे पढा और एक टिप्पणी कर दी। अब यही विवाद हो गया कि हमारी टिप्पणी वहाँ क्यों है? आपत्ति तो मुझे और भी है उस पोस्ट से लेकिन मैं किसी विवाद को बढाना नहीं चाहती इसलिए मैंने अनदेखा कर दिया। यह आभासी दुनिया नहीं है, हम एक दूसरे को जानने लगे हैं। लेकिन इसका यह अर्थ नहीं कि मैं महिला हूँ तो हमेशा हर बात पर किसी महिला के साथ खम्ब ठोककर खडी हो जाऊँ। यदि ऐसा नहीं करती तो मेरे ऊपर भी कीचड उछाला जाएगा? उस पोस्ट का टाइटिल पढते ही समझ गयी थी कि मेरे ऊपर कीचड़ उछालने का प्रयास हैं। अजय जी मुझे लगता है कि कुछ लोग ब्लाग जगत में व्यापार करने आ गए हैं, उनका लेखन से कोई लेना देना नहीं है। इसलिए वे लेखकीय गरिमा को बिल्कुल भी नहीं समझते हैं। आज हम ब्लाग पर हैं तो केवल अच्छा पढ़ने और नया विषय जानने के लिए हैं इसका अर्थ कदापि यह नहीं है कि जिसे लेखन की एबीसीडी भी नहीं आती वे लोग हम पर कीचड़ उछालेंगे। मुझे तो अभी तक समझ नहीं आ रहा कि आपत्ति क्या थी उस पोस्ट से?
जवाब देंहटाएंनज़रिये की बात है
जवाब देंहटाएंउम्दा बात लिखी बेहतरीन पोस्ट
बधाई हो साफ़ साफ़ लिखने के लिये
http://lalitdotcom.blogspot.com/2010/11/blog-post_22.html
जवाब देंहटाएंhttp://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2010/11/blog-post_9611.html
just putting in the links for the benefit of readers like Dr Amar
Few other links for people like एक है सुश्री रिया नागपाल और दूसरे हैं मित्र ब्लॉगर और इस बार ही मिले भाई केवल राम
जवाब देंहटाएंwho are doing research on bloging
http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2009/07/blog-post_29.html .
http://indianwomanhasarrived.blogspot.com/2010/02/blog-post_17.html
http://chitthacharcha.blogspot.com/2009/12/blog-post_31.html
झा जी जब आपने रचना जी कि पोस्ट को गैर जरुरी घोषित किया और घोषणा कि थी कि आप इस विषय में पोस्ट लिखेंगे तो मुझे लगा कि जिस पोस्ट पर रचना जी को एतराज था आप उसके समर्थन में कुछ कुछ ठोस बात करेंगे पर वकील साहब आप चूक गए.
जवाब देंहटाएंमुझे तो ये बात ही समझ नहीं आयी कि आपने अपनी इस पोस्ट में रचना जी का स्पष्ट उल्लेख क्यों नहीं किया. अरे भई कोई अनजान आदमी आपकी पोस्ट पढ़ ले तो उसे क्या समझ आयेगा कि आप किस सन्दर्भ में बात कर रहे हैं.
खैर मैंने देखा है कि बड़े बड़े ब्लॉगर किसी बात पर परेशान तो होते हैं और उस पर पोस्ट भी लिखते हैं पर अपनी परेशानी का कारण बताना मुनासिब नहीं समझते और आपने अपने अग्रजों कि उस रीत का पालन किया है. ब्लॉग को एक खुला मंच मनाकर आपकी पोस्ट पर अपने मन में आए विचार रखता हूँ.
झा जी सच कहू तो मुझे समझ नहीं आया कि आप अपनी इस पोस्ट में किन लोगों के सामने ब्लॉग जगत कि अच्छी छवि पेश करने कि बात कर रहे है. क्या वे लोग किसी दुसरे ग्रह से आए अजनबी प्राणी हैं जो ब्लॉग जगत कि कोई छोटी सी बहस से उनके लिए अचरज कि बात होगी. वैसे मुझे तो नहीं लगता कि यहाँ कोई शिक्षक है और कोई शिष्य. अब दो चार साल पुरानी विधा में कैसे कोई इतना पारंगत हो जायेगा कि खुद को प्रशिक्षक माने और दूसरों को प्रशिशार्थी .पर अगर ये खुद को शिक्षार्थी मानते ही है तो इन्हें पढ़ाइये कि negetive aur positive से ही दिमाग कि बत्ती जलती है.
ब्लॉग इसी दुनिया के लोगो कि देन है और यहीं के लोग इसमें सम्मिलित हैं तो यही के लोगों के लिए छवि बनने कि कसरत क्यों .झा जी अपन तो इस विचार का ही समर्थन नहीं करते कि आप असल में कुछ और हो पर छवि कुछ और दिखाओ. जो हो जैसे वही दिखाओ बनावटी कुछ नहीं होना चाहिए वर्ना जब असलियत सामने आती है तो बहुत शर्मिंदा होना पड़ता है .
ललित शर्मा जी कि पोस्ट पढ़ कर मुझे तो पहली नजर में ही साफ़ लगा कि रचना शब्द का बार बार उपयोग जानबूझकर किया गया है और बाद के कुछ कमेंट्स भी ऐसे ही द्विअर्थी हैं जो कि रचना जी को भी अखरा और उन्होंने अपनी पोस्ट में इस बात पर आपत्ति दर्ज करवा दी. मैं सोचता हूँ कि इस विषय में लेखक जी रचना जी से तुरंत खेद व्यक्त कर क्षमा मांग लेते तो मामला वहीँ ख़त्म तो जाता. भई मैं तो मानता हूँ कि जानबूझकर किसी का दिल दुखाना उतनी बड़ी गलती नहीं है जितनी बड़ी
गलती है अनजाने में किसी का दिल दुखाना. ऐसे में तो तुरंत माफ़ी मांग लेनी चाहिए. मेरी नजर में ये बड़प्पन कि निशानी है.
रचना जी कि नारीवादी छवि है. मुझे भी बहुत जगहों पर लगा है कि वो इस विषय में अतिवाद का शिकार हो जाती हैं. मेरे मित्र अमित का भी इस विषय में उनसे मन मुटाव हो चुका है. पर मैं नहीं मानता कि हम किसी व्यक्ति को सिर्फ इसलिए अपने निशाने पर रखे कि उसकी विचारधारा हमारी विचारधारा से मेल नहीं खाती. अपने ये बात कह कर रचना जी लोगों के निशाने पर हैं उनकी इस बात का ही समर्थन किया है कि वो रोहतक वार्ता में चर्चा में थीं.
मैं खुद अनवर ज़माल के कुछ विचारों का घोर विरोधी हूँ पर वो हमेशा मेरे निशाने पर नहीं होते और जब होते हैं तो ये बात किसी से छिपी नहीं होती बल्कि खुद उनके साथ साथ सभी को पता होती है. जिस से भी आपका वैचारिक विरोध है तो सबके सामने उस से लड़िये, पीछे से बातें बनना या उस व्यक्ति को निशाने पर रखना ठीक नहीं है.
इस विषय में अंत में सिर्फ यही कहूँगा कि अगर ललित जी के मन में अपनी पोस्ट लिखते वक्त रचना जी के प्रति कोई भावना नहीं थी तो उन्हें रचना जी से सीधे सीधे बात कर मामला ख़त्म कर देना चाहिए था. इससे आपको भी पोस्ट लिखने कि कोई जरुरत नहीं पड़ती ..... क्या कहते हैं?
पूरी बात तो समझ में नहीं आई, या यूँ कहूँ कि ऊपर से निकल गई, लेकिन दो बातें बहुत ज़बरदस्त लगी....
जवाब देंहटाएंपहली:
हालांकि सबका मानना है कि इस तरह के ब्लॉग बैठकों में कुछ नहीं होता किंतु यदि किसी ब्लॉगर से उसके मुंह से ये सुनना कंप्यूटर के संचालन में भूलवश हुई एक गलती ने उन्हें नौकरी खोने पर मजबूर किया और उसके बाद उन्होंने न सिर्फ़ कंप्यूटर सीखा बल्कि एक दिन ब्लॉगिंग में भी आ गए , तो मेरे लिए तो एक ब्लॉगर के मुंह से सुना हुआ उनका ऐसा अनुभव भी मेरे लिए वहां मेरी उपस्थिति को सार्थक कर गया...
@हां भूल तो हुई है , और इसके जस्टीफ़िकेशन की कोई कोशिश करने का प्रयास भी किए जाने की जरूरत नहीं है क्योंकि जब ये अंदेशा हो गया था कि पोस्ट को एक गलत दिशा दी जा रही है तो फ़िर उन कारकों (टिप्पणियों) को सिरे से ही मिटा देना चाहिए था |
जवाब देंहटाएंयही बात मैंने भी कही थी की क्यों नहीं टिप्पणियों का तुरंत विरोध किया गया या उन्हें नहीं हटाय गया यदि हो जाता तो बात वही ख़त्म हो जाती और लेखक की मंसा पर कोई सवाल नहीं उठता |
दूसरी:
जवाब देंहटाएंइससे निषकर्ष ये निकलता है ब्लॉगर बैठक के आयोजन करने वाले तमाम उन विचारों को अपना गला ये सोच कर घोंट लेना चाहिए कि यहां दूसरे तो दूसरे उन मित्रों ने भी इसे खाने पिलाने की हैसियत करने वाले किसी भी शख्स की बपौती करार दिया जिन्होंने तो सरकारी खजाने से ही ऐसी या शायद इससे भी उच्च कोटि की मेहमाननवाजी का आनंद हिंदी ब्लॉगर होने की वजह से ही उठाया था , काश कि तब भी सोचा होता कि , बिल तो वहां भी दिया ही गया होगा ...एक की जेब से न सही .....पूरी जनता की जेब से ही सही ।
इसमें एक बात और भी है... किसी ने गलत लिखा या नहीं लिखा... इन सब विवादों को ब्लोगर्स मिलन से जोड़ना मुर्खता है... जो कुछ लिखा गया, ब्लोगर्स मीट के बाद लिखा गया, इसलिए जान बूझ कर ब्लोगर्स मीट को निशाना बनाना निंदनीय है... मेरे विचार से इस बात को तूल दिया जाना ही गलत है... अगर किसी पोस्ट के किसी अंश से किसी की भावनाओं को ठेस पहुंचा है तो उस अंश को हटा लेना ही बेहतर विकल्प है.
जवाब देंहटाएंमैं भी समझने की कोशिश कर रहा हूं अमर साहब की तरह… बहुत कन्फ़्यूज़ हूं… वकीलों की तो बात ही निराली होती है भाई…
जवाब देंहटाएंरचना जी ,
जवाब देंहटाएंमैं लिख तो इस मकसद से गया था कि इस पोस्ट को ताकि वे इकतरफ़ा संवाद , प्रतिक्रिया ही देख भर कर न रह जाएं , एक शिक्षार्थी जो कि खुद अब विवादास्पद बना दिए गए उस बैठक का हिस्सा थे इसलिए ये बहुत जरूरी हो गया था कि बात को पूरी तरह से स्पष्ट किया जाए मगर एक ब्लॉगर के रूप में मैं जरूर चाहूंगा कि शोध का विषय बनाने वाले आगंतुकों को पहले सकारात्मक सामग्री दिखाई दे , वर्ना कूडे कचरे की कमी थोडी है । आपने कुछ लिंक्स दिए , अपने समझ और उद्देश्य के अनुरूप , मैं भी कुछ लिंक्स इसके प्रत्युत्तर में यहां रखना चाह रहा था ताकि संतुलन बना रहे , किंतु देखा है कि इन विषयों का पटाक्षेप जितनी जल्दी हो जाए अच्छा रहता है , ब्लॉगर और ब्लॉग जगत के लिए भी
डॉ अजित गुप्ता जी ,
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आपकी बेबाक बातों ने बहुत ही संबल दिया इस पोस्ट को ,,पुन: आभार
विचारी जी , सबसे पहले तो तहेदिल से शुक्रिया अपनी बात को इतने विस्तार से रखने के लिए । आपकी बातों पर अपना पक्ष बात दर बात रखने की कोशिश करूंगा ।
जवाब देंहटाएंपहली बात मैंने कहीं भी किसी की भी पोस्ट को कभी भी गैरजरूरी घोषित नहीं किया , गौर से देखिए उस टिप्पणी के साथ कहा भी गया है कि मुफ़्त अटकलें और अंदेशा न लगाएं , और यदि मिटाने का विचार आए तो दोनों ही पोस्टों कि मिटा देना चाहिए था
हा हा हा ये खूब कही आपने कि मैंने नाम का उल्लेख क्यों नहीं किया स्पष्ट रूप से , दो कारण थे मेरे पास वाजिब से ,
जवाब देंहटाएंपहला ये कि जिन्हें समझना /समझाना था वे बिना नाम गाम लिए भी भलीभांतिं समझ ही गए , वो भी वो तक जिन्होंने ब्लॉगजगत की बातों /विवादों तक को समझने के लिए किसी भी वास्तविक नाम की जरूरत नहीं पडी ..जैसे कि ..कितना सुंदर नाम है ..अनाम जैसा ..विचार शून्य । और फ़िर दूसरी बात कि जब विवाद का कारण ही ....नाम का उल्लेख था ..तो फ़िर बार बार वही बात लिखनी जरूरी थी क्या ? जो नहीं समझे तो ठीक ही था क्योंकि ये संदर्भ ऐसा नहीं था कि जिसे कलेजा फ़ाड फ़ाड कर गर्व से दिखाया जाता
आपने उन्हें जो संदेश दिया है वो यकीनन उन तक पहुंच जाएगा , मगर पूरे विश्लेषण में आप एक महत्वपूर्ण बात शायद दरकिनार कर गए , क्या सिर्फ़ एक इस पोस्ट के आधार पर , जबकि वहां कई प्रतिष्ठित ब्लॉगर न सिर्फ़ अपना बल्कि पोस्ट लेखक तक के लिए कम से कम ये दावा तो कर ही चुके हैं कि उनकी वो मंशा नहीं हो सकती जो सिर्फ़ एक पोस्ट के आधार पर साबित की जाने की कोशिश की गई है
जवाब देंहटाएंशाहनवाज भाई ,
जवाब देंहटाएंशुक्रिया बहुत बहुत आपका
यही बात मैंने भी कही थी की क्यों नहीं टिप्पणियों का तुरंत विरोध किया गया या उन्हें नहीं हटाय गया यदि हो जाता तो बात वही ख़त्म हो जाती और लेखक की मंसा पर कोई सवाल नहीं उठता
जवाब देंहटाएंअंशुमाला जी , लेखक की मंशा पर सवाल उठाने से पहले उस लेखक के लिखे पढे टीपे गए को जरा गौर से देख परख लेना चाहिए था मेरे विचार से , और हां ..एक कहावत समीचीन लग रही है आज
कभी गाडी पर नाव .......कभी नाव पर गाडी ....पाठक खुद तय कर लेंगे कि स्थिति कौन सी है ...
मुझे नहीं पता कि मैं इस पोस्ट को रखूंगा या मिटा दूंगा मगर लिखना जरूरी लगा सो लिख दिया
हा हा हा सुरेश भाई ऐसा जुल्म न कीजीए ..आप भी समझने की कोशिश करेंगे तो कैसे चलेगा महाराज ....हाय आप तो समझ जाते , जो हमें पता होता कि आप यूं तीर चलाएंगे तो हम कोट ही कर देते अलग से आपके लिए कुछ न कुछ :) :) :)
जवाब देंहटाएंऔर हां सच कहा आपने वकीलों की बात ही निराली होता है , मगर मैं वकील नहीं हूं जनाब
ओह्हो… अब समझ में आया अजय भाई… जब शाहनवाज़ जी ने रिपीट किया… कि
जवाब देंहटाएं"…दूसरे तो दूसरे उन मित्रों ने भी इसे खाने पिलाने की हैसियत करने वाले किसी भी शख्स की बपौती करार दिया जिन्होंने तो सरकारी खजाने से ही ऐसी या शायद इससे भी उच्च कोटि की मेहमाननवाजी का आनंद हिंदी ब्लॉगर होने की वजह से ही उठाया था…"
ताने मारने की कला नहीं जानने की वजह से, मेरी मोटी बुद्धि में यह बात देर से समाई, कि आप शायद (शायद क्यों, पक्का) वर्धा सम्मेलन में मेरी उपस्थिति पर सवाल उठा रहे हैं और उसे इस तिलयार सम्मेलन से जोड़ रहे हैं…।
यूं छिपकर क्यों कहते हैं भाई, खुलकर कहिये जो कहना है… जैसे उस दिन राजीव तनेजा ने कहा था, मैं कभी बुरा नहीं मानता… बल्कि साफ़ जवाब देने में विश्वास करता हूं…। मैं तो खुल्लमखुल्ला बात करने का आदी हूं… "टिप्पू चच्चा" की तरह बेनामी बनकर दूसरों की खिल्ली उड़ाना मुझे नहीं आता…।
अब आते हैं वर्धा वाली बात पर…(जिसकी तरफ़ आपने इशारेबाजी की है) मैं वहाँ "पिकनिक मनाने" या "दारु पार्टी" करने नहीं गया था, अपने मामूली से व्यवसाय का तीन दिनों का नुकसान करके गया था…। क्यों गया? अधिकतर ब्लॉगर AC में आये मैं स्लीपर से गया, क्यों भई? सोचिये…
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एक बात और समझ नहीं आई कि आयोजक राज भाटिया जी तो इतनी आपत्तियाँ, सवाल, टीका-टिप्पणी नहीं झाड़ रहे, लेकिन बाकी लोग… उफ़्फ़्फ़्…। इसे कहते हैं "चाय से केतली ज्यादा गरम होना…"।
ब्लॉगिंग में मैं किसी हीही-ठीठी-फ़ीफ़ी टाइप की पोस्टों या "नेटवर्क" बनाने नहीं आया हूं मेरा उद्देश्य दूसरा है, और मेरा "PR-ship" वैसे भी कमजोर है… इसीलिये जब फ़ालतू सी पोस्टों पर 70-80 टिप्पणियाँ होती हैं तो मेरे ब्लॉग पर नगण्य…
सादर नमस्कार…
हा हा हा क्या सुरेश भाई खुद ही कहने को कहते हैं और फ़िर खुद ही टोकते हैं ...याद है एक बार आपने ही कहा था कि आपका सिद्धांत है कि यदि कोई प्रश्न उछाला जाता है आपकी तरफ़ तो उसका उत्तर देना ही आप ठीक समझते हैं ,
जवाब देंहटाएंपहले आपही ने कहा कि , कुछ समझ नहीं आया और देखिए न , अब आया तो क्या क्या समझ आ गया । और हां ताने मारने में तो मैं भी यकीन नहीं रखता , मगर जब सामने से ये कहा जाए कि , जिसके पास भी थोडा सा खिलाने पिलाने की औकात है वही ब्लॉगर सम्मेलन करा लेता है ...और कमाल की बात ये है कि दिल्ली में हुए अधिकांश सम्मेलनो में मैं आयोजक की भूमिका में आ ही जाता हूं , औकात फ़िर भी नहीं बदली वही की वही है ,
जी वो तो हम समझ ही गए थे कि आप लोग हिंदी ब्लॉग्गिंग की आचार संहिता का निर्माण करने गए थे , अब हम लोगों की हैसियत ही इतनी है पिकनिक करने की आचार संहिता हमसे कौन बनवाएगा तो करें क्या ? और हां उस दिन दारू पार्टी करने या पिकनिक मनाने कोई भी नहीं गया था , हम एक प्रवासी भाई राज भाटिया के स्नेह के कारण गए थे ...और हां आपका व्यवसाय का नुकसान हुआ जानकर दुख हुआ तीन दिन ही सही मगर , मुझे लगता है कि इन सम्मेलनों के आयोजन में जिनका पैसा लगता है वो उनका कोई न कोई व्यवसाय का ही हिस्सा होता है , आप स्लीपर में आए गए ये जानकर और अच्छा लगा और गर्व भी हुआ ।
राज भाटिया जी के अलावा सबने कुछ न कुछ कहा , अब इसका उत्तर तो वही देंगे कि उन्होंने क्यों कब क्या कहा नहीं कहा , जहां तक मेरी बात है तो बता दूं कि मुझे बताया दिखाया गया था कि ये सब उसी तिलियार सम्मेलन के परिप्रेक्षय में हुआ है जिसकी रिपोर्ट आप छाती फ़ुला फ़ुला कर लिख रहे हैं , जबकि मामला सर्वथा भिन्न है । अब क्या खाक गरम होंगे सुरेश भाई , वो दिल लद लिए ।
आपके उद्देश्य को सलाम और जज्बें को प्रणाम । मगर माफ़ करिएगा यहां जब भी कोई ये कहता है कि वो नेटवर्किंग करने नहीं आया है तो मैं सोचता हूं कि ...Internet ...यदि ठीक ठीक जानता हूं तो अंतर्जाल ...यानि जाल ही न ..तो फ़िर इस जाल का हिस्सा बन कर कोई कैसे कह सकता है कि वो नेटरर्किंग करने नहीं आया है और हां ..शुक्र है कि मेरी पोस्टें उस श्रेणी में नहीं आती जहां फ़ालतू की बात पर ७०-८० टिप्पणियां आती हैं .मैं उस श्रेणी में हूं जहां फ़ालतू की पोस्ट पर पच्चीस तीस टिप्पणियां आती हैं ...उम्मीद है कि इस दु:साहस को भी आज की इस पोस्ट का घटनाक्रम ही मानेंगे और मन में वो स्थान बना रहेगा जो बना हुआ है । कम से कम मेरी तरफ़ से तो ये तय मानियेगा ...
"मुझे लगता है कि हमें एक दूसरे की इज्जत करना अभी सीखना होगा और यदि ऐसा हम नहीं कर पा रहे हैं तो फ़िर ये बहुत ही जरूरी हो जाता है कि हम आपस में आभासी रिश्ता ही निभाएं"
जवाब देंहटाएंमुझे लगता है यही सही होगा अजय ! आभार सुझाव के लिए !
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएं"जिन्दगी की यही रीत है...हार के बाद ही जीत है"
जवाब देंहटाएंअरे!...काहे घबराते हैं अजय भाई?... ऐसी छोटी-मोटी रुकावटें तो हमेशा आती ही रहेंगी लेकिन यकीन मानिए इस ब्लोगीय मंथन से और कुछ अपने मंथन से कभी ना कभी आपसी सोहाद्र रुपी अमृत ज़रूर निकलेगा ...
तब तक पोस्ट दर पोस्ट ठेलते रहिये...पेलते रहिये और झेलते रहिये
विचार शून्य जी को विचारी जी ना कहे
जवाब देंहटाएंblog par likhtey samay mae link dae hi daetii hun so mujh is baat kaa koi dar{ is kae liyae koi aur upyukt shbd mil nahin rahaa } nahin haen ki us post par jaa kar koi kyaa matlab nikalegaa . wo kahin padhaa thaa
जवाब देंहटाएंकर्मण्ये वाधिकारस्ते म फलेषु कदाचना
कर्मफलेह्तुर भुरमा ते संगोस्त्वकर्मानी॥
so wahii kartee hun
is tarah ki baten job bhi bhulvash ho jati hain...
जवाब देंहटाएंto use tatkal parimarjan kar dena shreskar hota hai.....
hum pathkon ke liye sabhi apne hain. man khinnn ho
jata hai...isiliye satish bhaijee ke shabdon me
yahi kahna chahoonga ke ....hum logon ko ek-doosre
ki ijjat karna sikhni chahiye.......(kshma sahit)
pranam.
शानदार जवाब अजय भाई,
जवाब देंहटाएंनेटवर्किंग से मेरा आशय Public relationship से है, जिसमें मैं बहुत कमजोर हूं, न तो खामखा झूठी तारीफ़ें कर सकता हूं, न ही वाहवाही टिप्पणी करता हूं, न ही गुटबाजी की तरफ़ ध्यान होता है (मेरा एक ही खुल्लमखुल्ला गुट है, वह है राष्ट्रवादियों और हिन्दुत्ववाद का, जो आना चाहे स्वागत है)। सक्सेना जी ने अपनी पोस्ट में "व्यक्तिगत रंजिश" शब्द का उपयोग किया है जो कि पूर्णतया गलत है, ब्लॉगिंग में ऐसा नहीं होता है, यहाँ मुद्दों पर बहस होती है।
फ़िर भी हम अभी भी मूल सवाल पर बहस कर ही नहीं रहे हैं…
अब एक काल्पनिक स्थिति पर विचार कीजिये, कि यदि ललित भाई अपनी पोस्ट पर आपत्तियाँ आने के बाद तुरन्त उसे न सिर्फ़ हटा देते, बल्कि द्विअर्थी टिप्पणियाँ भी हटा देते… तो न विवाद बढ़ता, न दूसरे लोग इसमें कूदते, न तल्खियाँ बढ़तीं… परन्तु वैसा नहीं हुआ, बल्कि उसे "जस्टिफ़ाई" करने की कोशिशें भी हुईं तो हनुमान की पूंछ बढ़ती गई और बहस दिशा भ्रष्ट हो गई…
शुक्रिया सुरेश भाई , जैसा सोचा था आप वैसे ही निकले , आज इंसान पहचानने के खुद के यकीन पर फ़ख्र हो आया है । अब मैं आपकी बातों से आंशिक ही सही मगर सहमत हूं , और आपने पोस्ट में पढा ही है कि मैंने कहा है कि , भूल तो हुई है ...ध्यान रहे भूल ...गलती नहीं और मंशा भी नहीं ....आपके हिंदुत्वादी एजेंडे से तो तब से जुडे हैं जब बौरा के लाल कृष्ण जी के साथ लाल चौक काशमीर के लिए कूच कर गए थे ..आप भी क्या क्या याद दिला देते हैं । चलिए इस बहाने आप अब तक अपने लिए की गई सबसे लंबी टिप्पणी तो मिल गई न मुझे , अब इस पोस्ट को मिटा देना कठिन होगा मेरे लिए । शुभकामनाएं
जवाब देंहटाएंa repectful thanx for good understanding........
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